“मारी मावड़ी”
मारी मावडी मने
सुपणा रे माये दिखी|
अबे सुपणों यू जोर
को आयो,
बचपन रा वे दिन याद
लायो|
मावडी मारी गिले
आंगने सोई ही,
अर मने बिरी छाती रे
लगाई सोई ही|
लोरी गायर मने सुलाई
ही,
पण बिरी खुद री नींद
उडियोड़ी ही|
आंगनो तो पुरो आलो
हो,
पण छत सु भी पाणी
टपकतो हो|
अर आंगने माथे तो
खुद सुयगी ही,
पण छत रा पाणी रो
जतन करती ही|
फेर बैठी हुयर मने
गोदिया म सुलायो हो,
अर खुद आखी रात जागी
ही|
पाणी रो एक ई टपको
मारे माथे पडंदियो कोनी,
अर बिने आखी रात मै
सोवणदि कोनी|
फेर सूबे रा बीने एक
जपको आयो,
मारे भी एक झटको लाग
अर सुपणों टूटियो|
मन गणों कलपियो बी
सुपणा ने देखर
अबे मारे आंख्या सु
पाणी पडगो,
अर “रामकंवार” आधी
ही ई कविता ने लिखगो|
by रामकंवार पारासरिया
8696170664